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बृ॒हद्वयो॑ म॒घव॑द्भ्यो दधात॒ जुजो॑ष॒न्निन्म॒रुतः॑ सुष्टु॒तिं नः॑। ग॒तो नाध्वा॒ वि ति॑राति ज॒न्तुं प्र णः॑ स्पा॒र्हाभि॑रू॒तिभि॑स्तिरेत ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

bṛhad vayo maghavadbhyo dadhāta jujoṣann in marutaḥ suṣṭutiṁ naḥ | gato nādhvā vi tirāti jantum pra ṇaḥ spārhābhir ūtibhis tireta ||

पद पाठ

बृ॒हत्। वयः॑। म॒घव॑त्ऽभ्यः। द॒धा॒त॒। जुजो॑षन्। इत्। म॒रुतः॑। सु॒ऽस्तु॒तिम्। नः॒। ग॒तः। न। अध्वा॑। वि। ति॒रा॒ति॒। ज॒न्तुम्। प्र। नः॒। स्पा॒र्हाभिः॑। ऊ॒तिऽभिः॑। ति॒रे॒त॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:58» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:28» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन जगत् से आदर पाने योग्य होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो (मरुतः) मनुष्य (मघवद्भ्यः) अन्न से युक्त (नः) हम लोगों के लिये (बृहत्) बहुत (वयः) जीवन का (जुजोषन्) सेवन करते (इत्) ही हैं (नः) हम लोगों की (सुष्टुतिम्) उत्तम प्रशंसा को (दधात) धारण करते हैं और जो (गतः) प्राप्त हुआ (अध्वा) मार्ग है उस में (जन्तुम्) प्राणी को (न) नहीं (वि, तिराति) मारता है और जो (स्पार्हाभिः) स्पृहा करने योग्य (ऊतिभिः) रक्षा आदि क्रियाओं से हम लोगों को (प्र, तिरेत) बढ़ावें, उनका हम लोग नित्य सेवन करें ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो विद्वान् जन सब की अवस्था को बढ़ाते हैं, प्रशंसित कर्मों को कराते हैं, वे ही सबों से सत्कार करने योग्य होते हैं ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः के जगत्पूज्या भवन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे मनुष्या ! ये मरुतो मघवद्भ्यो नोऽस्मभ्यं बृहद्वयो जुजोषन्निन्नोऽस्माकं सुष्टुतिं दधात यो गतोऽध्वास्ति तस्मिन् जन्तुं न वितिराति यश्च स्पार्हाभिरूतिभिर्नोऽस्मान् प्रतिरेत तान् वयं नित्यं सेवेमहि ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (बृहत्) महत् (वयः) जीवनम् (मघवद्भ्यः) (दधात) दधति (जुजोषन्) सेवन्ते (इत्) एव (मरुतः) (सुष्टुतिम्) शोभनां प्रशंसाम् (नः) अस्माकमस्मान् वा (गतः) प्राप्तः (न) निषेधे (अध्वा) मार्गः (वि) (तिराति) विहन्ति (जन्तुम्) प्राणिनम् (प्र) (नः) अस्मान् (स्पार्हाभिः) स्पृहणीयाभिः (ऊतिभिः) रक्षादिभिः क्रियाभिः (तिरेत) वर्धये ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! ये विद्वांसः सर्वेषामायुर्वर्धयन्ति प्रशंसितानि कर्माणि कारयन्ति त एव सर्वैस्सत्कर्तव्या भवन्ति ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जी विद्वान माणसे सर्वांना दीर्घायु करतात, प्रशंसित कर्म करतात त्यांचाच सर्वांनी सत्कार करणे योग्य आहे. ॥ ३ ॥